उच्चतम न्यायालय ने अयोध्या में विवादित 2.77 एकड़ भूमि पर राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने वाले नौ नवंबर के अपने फैसले पर पुनर्विचार के लिये दायर याचिकायें बृहस्पतिवार को खारिज दीं। शीर्ष अदालत ने चैंबर में कुल 19 पुनर्विचार याचिकाओं पर गौर किया। न्यायालय ने इन याचिकाओं को उन्हें विचार योग्य नहीं पाया और सभी को खारिज कर दिया।
इस प्रकरण में मूल मालिकाना हक से संबंधित वादियों की 10 याचिकाओं को खारिज करते हुये प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने आदेश में कहा, ''खुले न्यायालय में पुनर्विचार याचिकायें सुनवाई के लिये सूचीबद्ध करने के आवेदन खारिज किये जाते हैं। हमने सावधानी के साथ पुनर्विचार याचिकाओं और इनके साथ दायर संबंधित दस्तावेजों का अवलोकन किया। हमें इनमें विचार के लिये कोई आधार नहीं मिला। तद्नुसार पुनर्विचार याचिकाएं खारिज की जाती हैं।''
शीर्ष अदालत ने 'तीसरे पक्ष' द्वारा दायर नौ अन्य याचिकाओं पर भी विचार किया जो मूल वाद में पक्षकार नहीं थे और उन्हें इस मामले में पुनर्विचार याचिका दायर करने की अनुमति देने से इंकार कर दिया। पीठ ने कहा, ''पुनर्विचार याचिकायें दायर करने की अनुमति के लिये आवेदन खारिज किये जाते हैं। पुनर्विचार याचिकायें दायर करने की अनुमति देने से इंकार किये जाने के तथ्य के मद्देनजर इन याचिकाओं को खुले न्यायालय में सूचीबद्ध करने का आवेदन और पुनर्विचार याचिकायें रद्द की जाती है।''
संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण, न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर और न्यायमूर्ति सुजीव खन्ना शामिल थे। जिन दस वादकारों की पुनर्विचार याचिकायें खारिज की गयी हैं उनमें से आठ याचिकायें मुस्लिम पक्षकारों ने दायर की थीं। इनमें आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा समर्थित पक्षकारों की याचिकायें भी शामिल थीं।
इस विवाद में प्रमुख मुस्लिम वादी उत्तर प्रदेश सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड ने नौ नवंबर के फैसले पर पुनर्विचार का अनुरोध नहीं करने का निर्णय लिया था। इस फैसले पर पुनर्विचार के लिये दो हिन्दू पक्षकारों-निर्मोही अखाड़ा और अखिल भारत हिन्दू महासभा- ने याचिकायें दायर की थीं। पुनर्विचार याचिकायें खारिज होने के बाद अब सिर्फ सुधारात्मक याचिका दायर करने का ही कानूनी विकल्प इन वादियों के पास बचा है।
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति के फैसले में अयोध्या की विवादित 2.77 एकड़ भूमि की डिक्री राम लला के पक्ष में देने के साथ केन्द्र सरकार को उप्र सुन्नी वक्फ बोर्ड को अयोध्या में मस्जिद निर्माण के लिये मुख्य स्थान पर पांच एकड़ भूमि आवंटित करने का भी निर्देश दिया था। संविधान पीठ ने केन्द्र को यह निर्देश भी दिया था कि मंदिर निर्माण के लिये तीन महीने के भीतर एक न्यास का गठन किया जाये।
शीर्ष अदालत के इस फैसले के खिलाफ सबसे पहले दो दिसंबर को पहली पुनर्विचार याचिका मूल वादी एम सिदि्दक के कानूनी वारिस मौलाना सैयद अशहद रशिदी ने दायर की थी। इसके बाद, छह दिसंबर को मौलाना मुफ्ती हसबुल्ला, मोहम्मद उमर, मौलाना महफूजुर रहमान, हाजी महबूब और मिसबाहुद्दीन ने दायर कीं, जिन्हें ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का समर्थन प्राप्त था।
मौलाना सैयद अशहद रशिदी ने 14 बिन्दुओं के आधार पर इस फैसले पर पुनर्विचार का अनुरोध किया था और कहा था कि बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण का निर्देश देकर ही इस मामले में 'पूर्ण न्याय' हो सकता है। उन्होंने नौ नवंबर के फैसले के उस अंश पर अंतरिम रोक लगाने का अनुरोध किया था, जिसमें केन्द्र को तीन महीने के भीतर मंदिर निर्माण के लिये एक न्यास गठित करने का निर्देश दिया गया था।
इसके बाद नौ दिसंबर को दो पुनर्विचार याचिकायें और दायर की गयी थीं। इनमें से एक याचिका अखिल भारत हिन्दू महासभा की थी जबकि दूसरी याचिका 40 से अधिक लोगों ने संयुक्त रूप से दायर की। संयुक्त याचिका दायर करने वालों में इतिहासकार इरफान हबीब, अर्थशास्त्री एवं राजनीतिक विश्लेषक प्रभात पटनायक, मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर, नंदिनी सुंदर और जॉन दयाल शामिल हैं।
अखिल भारत हिन्दू महासभा ने न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर करके मस्जिद निर्माण के लिये पांच एकड़ भूमि उप्र सुन्नी वक्फ बोर्ड को आबंटित करने के निर्देश पर सवाल उठाये थे। महासभा ने फैसले से उस अंश को हटाने का अनुरोध किया था जिसमें विवादित ढांचे को मस्जिद घोषित किया गया था।
साभार : यह लेख मूल रूप से समाचार एजेंसी पीटीआई द्वारा अंग्रेजी में लिखा गया है. यह मूल लेख का हिंदी अनुवाद है.