-
PTI

देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले एक माध्यम वर्गीय पंजाबी परिवार से ताल्लुक रखने वाली संध्या कोहली वैसे तो पेशे के अधिवक्ता हैं और उन्हें इस क्षेत्र में काम करने का 25 से भी अधिक वर्षों का अनुभव है.

संध्या जी को सबसे बड़ा मलाल इस बात का है कि जैसे दिल्ली के इन मध्यमवर्गीय पंजाबी परिवारों में पुरुषों का वर्चस्व चलता है वैसी ही स्थिति इन परिवार की भी है और इनके वृद्ध माता-पिता तक भी इसके चलते किसी भी फैसले को लेने में इनकी सलाह लेने से कतराते हैं. इनका कहना है कि कभी-कभार ही इनका परिवार इनकी सलाह लेता है और कई बार इनके पेशे के चलते पड़ोसियों और दूसरों पर रौब गालिब करने के लिए इनका परिवार इनके नाम का इस्तेमाल करता है.

एक अधिवक्ता होने के अलावा संध्या जी अपने मन में आने वाली बातों को शब्दों में पिरोकर कवितायेँ भी लिखती हैं. तो आज लॉकडाउन विशेष में आज आप दिल्ली की इस उभरती हुई कवियत्री संध्या जी की कुछ कविताओं को पढ़ने का आनंद लीजिये.

आज यू हुई तुमसे दिल की धड़कने हमारी रूबरू एक अरसे के बाद

की लवस खुद बा खुद बन गए दिल की धड़कन हमारी

कुछ इस कदर की अब तलक सोचते रहे है हम

कि वो बोली थी जुबान हमारी या दिल हमारा दस्तक दे गया तुम्हारे दिल को चुपचाप।

यू दिया ना करो तुम हमको उमर की दुहाई

क्यूंकि दोस्ती हमने की है तुम्हारे दिल से

तुम्हारी उम्र से की होती तो अभी दोस्ती में हमारी तुम्हारी कहीं साल दरमियान है।

अब कया इज़हार करे हम एहसासों का अब तो ऐसा आया है वक़्त की मानो हर इंसान की सांसे जैसे साबुन की जाग और पानी की चंद बूंदों कि मोहताज हो गई है।

जिंदगी तो अभी भी तेरी है और पहले भी तेरी ही थी मित्रा बस कुछ दिनों से तुझे उसके क्षणबंगुर होने का फकत एहसास हो गया है।

ज़िक्र ना करने से जो फिक्र के अहसास कम हो जाते,
दुनिया में आधे दर्द खुद बा खुद ख़त्म हो जाते !!!

इतनी बदसूलकी ना कर
.... ए जिंदगी....
हम कौन सा यहां बार बार आने वाले हैं...

वो थक गई थी भीड़ मे चलते चलते क्यूंकि उसके....
बदन पे बहुत सी निगाहों का बोझ था....

समझ नही आते है मुझे
मौसम की तरह तुम्हारे मिजाज ,
कभी करते हो बेइन्तेहा मोहब्बत की बारिश,
तो कभी आंधी की तरह बिफर जाते है तुम्हारे अंदाज...!!

तुम्हारी आँखों में बसा है आशियाना मेरा,,
अगर ज़िन्दा रखना चाहो तो कभी आँसू मत लाना..",

संभाल कर रखिए दोस्तों ये फ़ुरसत के लम्हें बड़ी क़ीमत अदा कर ये दौर ए सुकूं आया है ,
अपने हाथों से दे रहे थे ज़ख्म बेहिसाब कुदरत ने तो बस आज आईना दिखाया है।

उन्हें शिकवा है, आज हमारे बदले हुए मिजाज से,
जो खुद के रवईये से बरसों से अनजान थे!