पीएम नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो.
पीएम नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो.एएनआई

वर्ष 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने का एक बहुत बड़ा कारण था उन्हें ग्रामीण भारत से मिला भारी जनसमर्थन, जिसमें उत्तर प्रदेश का विशेष योगदान जहां पार्टी कुल 80 लोकसभा सीटों में से 73 पर जीत दर्ज करने में सफल रही थी. अब जब 2019 के आम चुनावों में एक वर्ष से भी कम का समय बचा है, अधिकतर विश्लेषकों का मानना है कि प्रधानमंत्री के लिये 2014 के करिश्मे को दोहराना काफी मुष्किल हो सकता है.

देश की 1.3 अरब आबादी में से करीब 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण भारत में रहती है और ऐसा लगता है कि वे जीवन स्तर में सुधार करने में सरकार की विफलता से आजिज आ चुके हैं. जाति, धर्म और क्षेत्रीय दलों की महत्ता जैसे कारकों के चलते, भारत में चुनावों के नतीजों को लेकर कोई भविष्यवाणी करना बेहद कठिन काम है. हालांकि कई किसानों के साक्षात्कार के आधार पर यह बात सामने आ रही है कि सरकार द्वारा उठाये जा रहे नाकाफी कदम उसे खासे महंगे पड़ सकते हैं.

उत्तर प्रदेश के एक गन्ना किसान उदय वीर सिंह कहते हैं, ''मोदी ने किसानों की आमदनी को दोगुना करने का वायदा किया था लेकिन उनकी बेरुखी और किसान विरोधी नीतियों के चलते हमारी कमाई पहले से भी आधी हो गई है.'' 55 वर्षीय नरेंद्र कलहांडे कहते हैं, ''हालांकि मोदी एक बहुत अच्छे सेल्समैंन हैं लेकिन अब हम उनकी हवाई बातों में नहीं फंसने वाले हैं.'' हालांकि कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह सिंचाई, फसल बीमा और इलेक्ट्रोनिक बिक्री प्लेटफार्मों में सुधार की बातें करके सरकार का बचाव करते हैं. ''किसानों के लिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 48 महीने कांग्रेस के शासन के 48 सालों से कहीं अधिक बेहतर रहे हैं.''

मोदी से सत्ता में आने के पीछेे उच्च मुद्रस्फीती की दर और सुस्त विकास बहुत बड़े कारक थे. ग्रामीण समुदाय के लिये कृषि बाजारों में मौजूद बिचैलियों का जाल खाद्य पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी का बहुत बड़ा कारण था. हालांकि बीजेपी के शासनकाल में अर्थव्यवस्था में सुधार देखने को मिला है लेकिन सब्सिडी से प्रो-इन्वेस्टमेंट की तरफ रुझान होने के चलते अधिकतर किसानों को नुकसान ही हुआ है. लोकनीति के ''मूड आॅफ द नेशन'' सर्वे ने बीते एक साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में 12 प्रतिशत अंकों कि गिरावट दिखाई है. योगेंद्र यादव का मानना है कि अगले साल होने वाले चुनावों में किसानों के मुद्दे बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे.

आवश्यक वस्तुओं के दामों में आई जबर्दस्त कमी के नतीजतन कुछ प्रदेशों में 10 दिन की हड़ताल चल रही है जिसमें कई किसान संगठन अपना उत्पाद बेचने से इंकार कर रहे हैं. आयात में वृद्धि और स्थानीय उपज के अधिक होने के चलते दालों के दामों राज्य द्वारा निर्धारित की गई कीमतों से 20-30 प्रतिशत की कमी आई है.राज्य सरकार द्वारा 20 से अधिक फसलों के मूल्य निर्धारित करने के बावजूद राज्य एजेंसियां निर्धारित मूल्य पर सिफ गेहूं और चावल ही खरीद रही हैं. माल परिवाहन के लिये रेफ्ररजरेटिड ट्रकों की कमी के चलते सब्जियों की कीमतों में भी 25 प्रतिशत तक की गिरावट हुई है. इसी प्रकार निर्यात पर रोक लगने क चलते दूध की कीमतों में भी गिरावट आई है. हाल ही में, नई दिल्ली के नजदीक चरखी दादरी में किसानों ने 6 रुपये प्रति किलो की उत्पादन लागत की तुलना में सिर्फ 25 पैसे प्रति किलोग्राम की कीमत लगने का बाद अपनी टमाटर की फसल को सड़क किनारे फेंक दिया था.

झज्जर के एक किसान जयभगवान ने आधा एकड़ जमीन में प्याज बोने के लिये 12,000 रुपये का कर्ज लिया था. आखिर में वह केवल 12,000 रुपये ही वसूल कर सका. इसी प्रकार प्रकाश सिंह ने 6,000 रुपये खर्च कर मिर्च उगाई और कमाए सिर्फ 200 रुपये. कांग्रेस सरकार को सलाह देने वाले कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी कहते हैं कि सरकार के पास किसानों की सहायता करने के तीन रास्ते हैं - अतिरिक्त आपूति पर रोक लगाने को राज्यों द्वारा बफर स्टाॅक तैयार करना, कृषि उत्पादों को दालों और वनस्पति तेल जैसे उत्पादों में बदलने के कामों का बढ़ावा देना या फिर निर्यात को बढ़ावा देना. ऐसे कदमों के लिये लंबी अवधि के नीतिगत निर्णयों को लेने की जरूरत होती है लेकिन अधिकतर विश्लेषकों का मानना है कि सरकार फिलहाल कृषि ऋण माफी या अधिक दाम की गारंटी जैसी अल्पकालिक नीतियों की घोषणा करेगी.

इसके अलावा किसानों का यह भी कहना है कि वे नोटबदी और जीएसटी द्वारा सामने आइ चुनौतियों से भी जूझ रहे हैं. गुलाटी ने कहा, ''इस सरकार से बहुत अधिक अपक्षाएं थीं लेकिन सच्चाई यह है कि किसानों की स्थिति अब चार वर्ष पहले की स्थिति से भी अधिक बद्तर है.'' विशेषकर, नोटबंदी के बाद उन किसानों की हालत बहुत अधिक खराब हो गई है जो बीज खरीदने और भुगतान प्राप्त करने में सिर्फ नकदी का ही इस्तेमाल करते थे.

इसके अलावा बिजली और ईंधन के दामों में वृद्धि ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया है जिनके दामों में बीते एक वर्ष में बेतहाशा वृद्धि हुई है. डीजल अब 40 प्रतिशत महंगा हो चुका है और बिजली के दामों में भी 20 प्रतिशत की बढोतरी हो चुकी है. इसके अलावा बढ़ते वैश्विक उत्पादन के चलते चीनी के दामों में भारी कमी आई है जिसके चलते चीनी मिलों को काफी नुकसान उठाना पड़ा है. उत्तर प्रदेश की चीनी मिल पहले से ही किसानों का करीब 230 करोड़ रुपया चुकाने में असफल हैं. बीजेपी प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव कहते हैं कि सरकार ने सुनिश्चित किया है कि गन्ना किसानों को उनका भुगतान सुव्यवस्थित रूप से किसानों को मिले. हालांकि अधिकतर किसान उनकी बात से इत्तेफाक नहीं रखते. शामली के एक गन्ना किसान राम लखन सिंह कहते हैं, ''अधिकतर चीनी मिलों ने हमें दिसंबर से एक नए पैसे का भुगतान नहीं किया है और सरकार ने उनके साथ मिलीभगत करके हमारा पैसा रोक रखा है. मेरी बात का यकीन करिये, इस बार गन्ना किसान बीजेपी को वोट देने से पहले दो बार जरूर सोचेगा.''